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भारतीय मनोविज्ञान कितना यथार्थ !



पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक डॉ. सिग्मंड फ्रायड स्वयं कई शारीरिक और मानसिक रोगों से ग्रस्त था। 'कोकीन' नाम की नशीली दवा का वो व्यसनी भी था। इस व्यसन के प्रभाव में आकर उसने जो कुछ लिख दिया उसे पाश्चात्य जगत ने स्वीकार कर लिया और इसके फलस्वरूप आज तक वे शारीरिक और मानसिक रोगियों की संख्या बढ़ाते जा रहे हैं। अब पश्चिम के मनोवैज्ञानिकों ने फ्रायड की गलती को स्वीकार किया है और एडलर एवं कार्ल गुस्ताव जुंग जैसे प्रखर मनोवैज्ञानिक ने फ्रायड की कड़ी आलोचना की है। फिर भी इस देश के मनोचिकित्सक और सेक्सोलोजिस्ट कई बार हमारे युवावर्ग को फ्रायड के सिद्धान्तों पर आधारित उपदेश देकर गुमराह कर रहे हैं। कुछ लोग समझते हैं किः'ब्रह्मचर्य को वैज्ञानिक समर्थन प्राप्त नहीं है.... यह केवल हमारे शास्त्रों के द्वारा ही प्रमाणित है....' पर ऐसी बात नहीं है। वास्तव में या तो लोगों को गुमराह करने वाले लोग फ्रायड के अंधे अनुयायी हैं, या तो वे इस देश में भी पाश्चात्य देशों की नाईं पागलों की और यौन रोगियों की संख्या बढ़ाना चाहते हैं जिससे उनको पर्याप्त मरीज मिलते रहें और उनका धंधा चलता रहे।

आज के बड़े-बड़े डॉक्टर और मनोवैज्ञानिक भारत के ऋषि-मुनियों के ब्रह्मचर्य विषयक विचारधारा का, उनकी खोज का समर्थन करते हैं। डॉ. ई. पैरियर का कहना हैः "यह एक अत्यन्त झूठा विचार है कि पूर्ण ब्रह्मचर्य से हानि होती है। नवयुवकों के शरीर, चरित्र और बुद्धि का रक्षक रखना सबसे अच्छी बात ही है।"

ब्रिटिश सम्राट के चिकित्सक सर जेम्स पेजन लिखते हैं- "ब्रह्मचर्य से शरीर और आत्मा को कोई हानि नहीं पहुँचती। अपने को नियंत्रण में रखना सबसे अच्छी बात है।"

ब्रह्मचर्य का रहस्य



एक बार ऋषि दयानंद से किसी ने पूछाः "आपको कामदेव सताता है या नहीं ?"


उन्होंने उत्तर दियाः "हाँ वह आता है, परन्तु उसे मेरे मकान के बाहर ही खड़े रहना पड़ता है क्योंकि वह मुझे कभी खाली ही नहीं पाता।"


ऋषि दयानंद कार्य में इतने व्यस्त रहते थे कि उन्हें सामान्य बातों के लिए फुर्सत ही नहीं थी। यही उनके ब्रह्मचर्य का रहस्य था।


हे युवानों ! अपने जीवन का एक क्षण भी व्यर्थ न गँवाओ। स्वयं को किसी-न-किसी दिव्य सत्प्रवृत्ति में संलग्न रखो। व्यस्त रहने की आदत डालो। खाली दिमाग शैतान का घर। निठल्ले व्यक्ति को ही विकार अधिक सताते हैं। आप अपने विचारों को पवित्र, सात्त्विक व उच्च बनाओ। विचारों की उच्चता बढ़ाकर आप अपनी आंतरिक दशा को परिवर्तित कर सकते हो। उच्च व सात्त्विक विचारों के रहते हुए राजसी व हलके विचारों व कर्मों की दाल नहीं गलेगी। सात्त्विक व पवित्र विचार ही ब्रह्मचर्य का आधार है।


ब्रह्मचर्य का अर्थ



ब्रह्मचर्य का अर्थ है सभी इन्द्रियों पर काबू पाना। ब्रह्मचर्य में दो बातें होती हैं- ध्येय उत्तम होना, इन्द्रियों और मन पर अपना नियंत्रण होना।

ब्रह्मचर्य में मूल बात यह है कि मन और इन्द्रियों को उचित दिशा में ले जाना है। ब्रह्मचर्य बड़ा गुण है। वह ऐसा गुण है, जिससे मनुष्य को नित्य मदद मिलती है और जीवन के सब प्रकार के खतरों में सहायता मिलती है।

ब्रह्मचर्य आध्यात्मिक जीवन का आधार है। आज तो आध्यात्मिक जीवन गिर गया है, उसकी स्थापना करनी है। उसमें ब्रह्मचर्य एक बहुत बड़ा विचार है। अगर ठीक ढंग से सोचें तो गृहस्थाश्रम भी ब्रह्मचर्य के लिए ही है। शास्त्रकारों के बताये अनुसार ही अगर वर्तन किया जाय तो गृहस्थाश्रम भी ब्रह्मचर्य की साधना का एक प्रकार हो जाता है।

मुस्लिम महिला को प्राणदान



२७ सितम्बर २००० को जयपुर में मेरे निवास पर पूज्य बापू का 'आत्म-साक्षात्कार दिवसमनाया गयाजिसमें मेरे पड़ोस की मुस्लिम महिला नाथी बहन के पतिश्री माँगू खाँने भी पूज्य बापू की आरती की और चरणामृत लिया ३-४ दिन बाद ही वे मुस्लिम दंपति ख्वाजा साहिब के उर्स में अजमेर चले गये दिनांक ४ अक्टूबर २००० को अजमेर के उर्स में असामाजिक तत्वों ने प्रसाद में जहर बाँट दियाजिससे उर्स मेले में आये कई दर्शनार्थी अस्वस्थ हो गये और कई मर भी गये मेरे पड़ोस की नाथी बहन ने भी वह प्रसाद खाया और थोड़ी देर में ही वह बेहोश हो गयी अजमेर में उसका उपचार किया गया किंतु उसे होश न आया दूसरे दिन ही उसका पति उसे अपने घर ले आया कॉलोनी के सभी निवासी उसकी हालत देखकर कह रहे थे कि अब इसका बचना मुश्किल है मैं भी उसे देखने गया वह बेहोश पड़ी थी मैं जोर-जोर से हरि ॐ... हरि ॐ... का उच्चारण किया तो वह थोड़ा हिलने लगी मुझे प्रेरणा हुई और मैं पुनः घर गया पूज्य बापू से प्रार्थना की ३-४ घंटे बाद ही वह महिला ऐसे उठकर खड़ी हो गयी मानोंसोकर उठी हो उस महिला ने बताया कि मेरे चाचा ससुर पीर हैं और उन्होंने मेरे पति के मुँह से बोलकर बताया कि तुमने २७ सितम्बर २००० को जिनके सत्संग में पानी पिया थाउन्हीं सफेद दाढ़ीवाले बाबा ने तुम्हें बचाया है ! कैसी करूणा है गुरूदेव की !
-जे.एल. पुरोहित,
८७सुल्तान नगरजयपुर (राज.)
उस महिला का पता है: -श्रीमती नाथी
पत्नी श्री माँगू खाँ,
१००सुल्तान नगर,
गुर्जर की धड़ी,
न्यू सांगानेर रोड़,
जयपूर (राज.)

हम सबको भक्त बनने की ताकत मिले



"मैं तो पूज्य बापूजी के श्रीचरणों में प्रणाम करने आया हूं भक्ति से बड़ी कोई ताकत नहीं होती और भक्त हर कोई बन सकता है हम सबको भक्त बनने की ताकत मिले मैं समझता हूं कि संतों के आशीर्वाद ही हम सबकी पूंजीहोती है |"
-नरेन्द्र मोदी,

धरती तो बापूजी जैसे संतों के कारण टिकी है



"मुझे सत्संग में आने का मौका पहली बार मिला हैऔर पूज्य बापूजी से एक अदभुत बात मुझे और आप सबको सुनने को मिली हैवह है प्रेम की बात इस सृष्टि का जो मूल तत्व हैवह है प्रेम यह प्रेम नाम का तत्व यदि न हो तो सृष्टि नष्ट हो जायेगी लेकिन संसार में कोई प्रेम करना नहीं जानताया तो भगवान प्यार करना जानते हैं या संत प्यार करना जानते हैं जिसको संसारी लोग अपनी भाषा में प्रेम कहते हैंउसमें तो कहीं-न-कहीं स्वार्थ जुडा होता है लेकिन भगवान संत और गुरु का प्रेम ऐसा होता है जिसको हम सचमुच प्रेम की परिभाषा में बांध सकते हैं मैं यह कह सकती हूँ कि साधु-संतों को देश की सीमायें नहीं बांधतीं जैसे नदियों की धाराएँ देश और जाति और संप्रदाय की सीमाओं में नहीं बंधता कलियुग में हृदय की निष्कपटतानिःस्वार्थ प्रेमत्याग और तपस्या का क्षय होने लगा हैफिर भी धरती टिकी है तो बापू ! इसलिए कि आप जैसे संत भारतभूमि पर विचरण करते हैं बापू की कथा में ही मैंने यह विशेषता देखी है कि गरीब और अमीरदोनों को अमृत के घूंट एक जैसे पीने को मिलते हैं यहां कोई भेदभाव नहीं है |"
-सुश्री उमा भारती,

पूज्य बापू जीवन को सुखमय बनाने का मार्ग बता रहे हैं



गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री केशुभाई पटेल ११ मई को पूज्य बापू के दर्शन करने अमदावाद आश्रम पहुँचे | सत्संग सुनने के बाद उन्होंने भावपूर्ण वाणी में कहा: "मैं तो पूज्य बापू के दर्शन करने के लिये आया था किन्तु बड़े सौभाग्य से दर्शन के साथ ही सत्संग का लाभ भी मिला जीवन में अध्यात्मिकता के साथ सहजता कैसे लायें तथा मनुष्य सुखी एवं निरोगी जीवन किस प्रकार बिताये, इस गहन विषय को कितनी सरलता से पूज्य बापू ने हमें समझाया है! ईश्वर-प्रदत्त इस मनुष्य-जन्म को सुखमय बनने का मार्ग पूज्य बापू हमें बता रहे हैं भारतीय संस्कृति में निहित सत्य की ओर चलने की प्रेरणा हमें दे रहे हैं एक वैश्विक कार्यईश्वरीय कार्य जिसे स्वयं भगवान को करना हैवह कार्य आज पूज्य बापूजी कर रहे हैं बापू को मेरे शत-शत प्रणाम |"
-श्री केशुभाई पटेल,

सत्संग-श्रवण से मेरे हृदय की सफाई हो गयी...



पूज्यश्री के दर्शन करने व आशीर्वाद लेने हेतु आये हुए उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल श्री सुरजभान ने कहा: " स्मशानभूमी से आने के बाद हम लोग शरीर की शुद्धि के लिये स्नान कर लेते हैं ऐसे ही विदेशों में जाने के कारण मुझ पर दूषित परमाणु लग गये थेपरंतु वहां से लौटने के बाद यह मेरा परम सौभाग्य है कि महाराजश्री के दर्शन व पावन सत्संग करने से मेरे चित्त की सफाई हो गयी विदेशों में रह रहे अनेकों भारतवासी पूज्य बापू के प्रवचनों कोप्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से सुन रहे हैं मेरा यह सौभाग्य है कि मुझे यहां महाराजश्री को सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ है |"
-श्री सुरजभान,

राष्ट्र उनका ॠणी है



भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री चन्द्रशेखरदिल्ली के स्वर्ण जयंती पार्क में २५ जुलाई १९९९ को बापूजी की अमृतवाणी का रसास्वादन करने के पश्चात बोले: "आज पूज्य बापू की दिव्य वाणी का लाभ लेकर मैं धन्य हो गया  संतों की वाणी ने हर युग मे नया संदेश दिया हैनयी प्रेरणा जगायी है कलहविद्रोह और द्वेष से ग्रस्त वर्तमान वातावरण में बापू जिस तरह सत्यकरुणा और संवेदनशीलता के संदेश का प्रसार कर रहे हैंइसके लिये राष्ट्र उनका ॠणी है |"
-श्री चन्द्रशेखर,

परम पूज्य संत श्री आसारामजी बापू के कृपा-प्रसाद से परिप्लावित हृदयों के उदगार


पू. बापू: राष्ट्रसुख के संवर्धक "पूज्य बापू द्वारा दिया जानेवाला नैतिकता का संदेश देश के कोने-कोने मे जितना अधिक प्रसारित होगाजितना अधिक बढ़ेगाउतनी ही मात्रा में राष्ट्रसुख का संवर्धन होगाराष्ट्र की प्रगति होगी जीवन के हर क्षेत्र में इस प्रकार के संदेश की जरुरत है |"
-श्री लालकृष्ण आडवाणी,

पूज्य संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग में प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के उदगार...


"पूज्य बापूजी के भक्तीरस में डूबे हुए श्रोता भाई-बहनो ! मैं यहाँ पर पूज्य बापूजी का अभिनंदन करने आया हूँ ... उनका आर्शीवचन सुनने आया हूँ... भाषण देने या बकबक करने नहीं आया हूँ बकबक तो हम करते रहते हैं बापूजी का जैसा प्रवचन हैकथा-अमृत हैउस तकपहुँचने के लिये बड़ा परिश्रम करना पड़ता है मैंने पहले उनके दर्शन पानीपत में किये थे वहीं पर रात को पानीपत में पुण्य-प्रवचन समाप्त होते ही बापूजी कुटीर में जा रहे थेतब उन्होंने मुझे बुलाया  मैं भी उनके दर्शन और आशीर्वाद के लिये लालायित था संत-महात्माओं के दर्शन तभी होते हैंउनका सान्निध्य तभी मिलता है जब कोई पुण्य जागृत होता है इस जन्म में कोई पुण्य किया हो इसका मेरे पास कोई हिसाब तो नहीं है किन्तु जरुर यह पूर्वजन्म के पुण्यों का ही फल है जो बापूजी के दर्शन हुए उस दिन बापूजी ने जो कहावह अभी तक मेरे हृदय-पटल पर अंकित है देशभर की परिक्रमा करते हुए जन-जन के मन में अच्छे संस्कार जगानायह एक ऐसा परमराष्ट्रीय कर्तव्य हैजिसने हमारे देश को आज तक जीवित रखा है और इसके बल पर हम उज्जवल भविष्य का सपना देख रहे हैं... उस सपने को साकार करने की शक्ति-भक्ति एकत्र कर रहे हैं पूज्य बापूजी सारे देश में भ्रमण करके जागरण का शंख नाद कर रहे हैंसर्वधर्म-समभाव की शिक्षा दे रहे हैंसंस्कार दे रहे हैं तथा अच्छे और बुरे में भेद करना सिखा रहे हैं हमारी जो प्राचीन धरोहर थी और हम जिसे लगभग भुलाने का पाप कर बैठे थेबापूजी हमारी आँखो मे ज्ञान का अंजन लगाकर उसको फिर से हमारे सामने रख रहे हैं बापूजी ने कहा कि ईश्वर की कृपा से कण-कण में व्याप्त एक महान शक्ति के प्रभाव से जो कुछ घटित होता हैउसकी छानबीन और उस पर अनुसंधान करना चाहिए |

कर्म कैसे करें?


श्रीमद् भगवद् गीता के तीसरे अध्याय 'कर्मयोग' में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्यचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः॥
'तू निरंतर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भलीभाँति करता रह क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।'
(गीताः 3.19)
गीता में परमात्म-प्राप्ति के तीन मार्ग बताये गये हैं- ज्ञानमार्गभक्तिमार्ग और निष्काम कर्ममार्ग। शास्त्रों में मुख्यतः दो प्रकार के कर्मों का वर्णन किया गया हैः विहित कर्म और निषिद्ध कर्म। जिन कर्मों को करने के लिए शास्त्रों में उपदेश किया गया हैउन्हें विहित कर्म कहते हैं और जिन कर्म को करने के लिए शास्त्रों में मनाई की गयी हैउन्हें निषिद्ध कर्म कहते हैं।
हनुमानजी ने भगवान श्रीराम के कार्य के लिए लंका जला दी। उनका यह कार्य विहित कार्य हैक्योंकि उन्होंने अपने स्वामी के सेवाकार्य के रूप में ही लंका जलायी। परंतु उनका अनुसरण करके लोग एक-दूसरे के घर जलाने लग जायें तो यह धर्म नहीं अधर्म होगामनमानी होगी।
हम जैसे-जैसे कर्म करते हैंवैसे-वैसे लोकों की हमें प्राप्ति होती है। इसलिए हमेशा अशुभ कर्मों का त्याग करके शुभ कर्म करने चाहिए।
जो कर्म स्वयं को और दूसरों को भी सुख-शांति दें तथा देर-सवेर भगवान तक पहुँचा देंवे शुभ कर्म हैं और जो क्षणभर के लिए ही (अस्थायी) सुख दें और भविष्य में अपने को तथा दूसरों को भगवान से दूर कर देंकष्ट देंनरकों में पहुँचा दें उन्हें अशुभ कर्म कहते हैं।
किये हुए शुभ या अशुभ कर्म कई जन्मों तक मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ते। पूर्वजन्मों के कर्मों के जैसे संस्कार होते हैंवैसा फल भोगना पड़ता है।
गहना कर्मणो गतिः। कर्मों की गति बड़ी गहन होती है। कर्मों की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। वे तो जड़ हैं। उन्हें पता नहीं है कि वे कर्म हैं। वे वृत्ति से प्रतीत होते हैं। यदि विहित (शास्त्रोक्त) संस्कार होते हैं तो पुण्य प्रतीत होता है और निषिद्ध संस्कार होते हैं तो पाप प्रतीत होता है। अतः विहित कर्म करें। विहित कर्म भी नियंत्रित होने चाहिए। नियंत्रित विहित कर्म ही धर्म बन जाता है।
सुबह जल्दी उठकर थोड़ी देर के लिए परमात्मा के ध्यान में शांत हो जाना और सूर्योदय से पहले स्नान करनासंध्या-वंदन इत्यादि करना - ये कर्म स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अच्छे हैं और सात्त्विक होने के कारण पुण्यमय भी हैं। परंतु किसी के मन में विपरीत संस्कार पड़े हैं तो वह सोचेगा कि 'इतनी सुबह उठकर स्नान करके क्या करूँगा?' ऐसे लोग सूर्योदय के पश्चात् उठते हैंउठते ही सबसे पहले बिस्तर पर चाय की माँग करते हैं और बिना स्नान किये ही नाश्ता कर लेते हैं। शास्त्रानुसार ये निषिद्ध कर्म हैं। ऐसे लोग वर्तमान में भले ही अपने को सुखी मान लें परंतु आगे चलकर शरीर अधिक रोग-शोकाग्रस्त होगा। यदि सावधान नहीं रहे तो तमस् के कारण नारकीय योनियों में जाना पड़ेगा।
भगवान श्रीकृष्ण ने 'गीता' में कहा भी कहा है कि 'मुझे इन तीन लोकों में न तो कोई कर्तव्य है और न ही प्राप्त करने योग्य कोई वस्तु अप्राप्त है। फिर भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ।'
इसलिए विहित और नियंत्रित कर्म करें। ऐसा नहीं कि शास्त्रों के अनुसार कर्म तो करते रहें किंतु उनका कोई अंत ही न हो। कर्मों का इतना अधिक विस्तार न करें कि परमात्मा के लिए घड़ीभर भी समय न मिले। स्कूटर चालू करने के लिए व्यक्ति 'किक' लगाता है परंतु चालू होने के बाद भी वह 'किक' ही लगाता रहे तो उसके जैसा मूर्ख इस दुनिया में कोई नहीं होगा।
अतः कर्म तो करो परंतु लक्ष्य रखो केवल आत्मज्ञान पाने कापरमात्म-सुख पाने का। अनासक्त होकर कर्म करोसाधना समझकर कर्म करो। ईश्वर परायण कर्मकर्म होते हुए भी ईश्वर को पाने में सहयोगी बन जाता है।
आज आप किसी कार्यालय में काम करते हैं और वेतन लेते हैं तो वह है नौकरीकिंतु किसी धार्मिक संस्था में आप वही काम करते हैं और वेतन नहीं लेते तो आपका वही कर्म धर्म बन जाता है।
धर्म में बिरति योग तें ग्याना.... धर्म से वैराग्य उत्पन्न होता है। वैराग्य से मनुष्य की विषय-भोगों में फँस मरने की वृत्ति कम हो जाती है। अगर आपको संसार से वैराग्य उत्पन्न हो रहा है तो समझना कि आप धर्म के रास्ते पर हैं और अगर राग उत्पन्न हो रहा है तो समझना कि आप अधर्म के मार्ग पर हैं।
विहित कर्म से धर्म उत्पन्न होगाधर्म से वैराग्य उत्पन्न होगा। पहले जो रागाकार वृत्ति आपको इधर-उधर भटका रही थीवह शांतस्वरूप में आयेगी तो योग हो जायेगा। योग में वृत्ति एकदम सूक्ष्म हो जायेगी तो बन जायेगी ऋतम्भरा प्रज्ञा।
विहित संस्कार होंवृत्ति सूक्ष्मतम हो और ब्रह्मवेत्ता सदगुरुओं के वचनों में श्रद्धा हो तो ब्रह्म का साक्षात्कार करने में देर नहीं लगेगी।
संसारी विषय-भोगों को प्राप्त करने के लिए कितने भी निषिद्ध कर्म करके भोग भोगेकिंतु भोगने के बाद खिन्नताबहिर्मुखता अथवा बीमारी के सिवाय क्या हाथ लगा? विहित कर्म करने से जो भगवत्सुख मिलता है वह अंतरात्मा को असीम सुख देने वाला होता है।
जो कर्म होने चाहिए वे ब्रह्मवेत्ता महापुरुष की उपस्थिति मात्र से स्वयं ही होने लगते हैं और जो नहीं होने चाहिए वे कर्म अपने-आप छूट जाते हैं। परमात्मा की दी हुई कर्म करने की शक्ति का सदुपयोग करके परमात्मा को पाने वाले विवेकी पुरुष समस्त कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाते हैं।
'गीता' में भगवान ने कहा भी है कि ब्रह्मज्ञानी महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न ही कर्म न करने से कोई प्रयोजन रहता है। वे कर्म तो करते हैं परंतु कर्मबंधन से रहित होते हैं।
एक ब्रह्मज्ञानी महापुरुष 'पंचदशी' पढ़ रहे थे। किसी ने पूछाः ''बाबाजी ! आप तो ब्रह्मज्ञानी हैंजीवनमुक्त हैं फिर आपको शास्त्र पढ़ने की क्या आवश्यकता है? आप तो अपनी आत्म-मस्ती में मस्त हैंफिर पंचदशी पढ़ने का क्या प्रयोजन है?"
बाबाजीः "मैं देख रहा हूँ कि शास्त्रों में मेरी महिमा का कैसा वर्णन किया गया है।"
अपनी करने की शक्ति का सदुपयोग करके जो ब्रह्मानंद को पा लेते हैं वे ब्रह्मवेत्ता महापुरुष ब्रह्म से अभिन्न हो जाते हैं। ब्रह्माविष्णु और महेश उन्हें अपना ही स्वरूप दिखते हैं। वे ब्रह्मा होकर जगत की सृष्टि करते हैंविष्णु होकर पालन करते हैं और रूद्र होकर संहार भी करते हैं।
आप भी अपनी करने की शक्ति का सदुपयोग करके उस अमर पद को पा लो। जो करोईश्वर को पाने के लिए ही करो। अपनी अहंता-ममता को आत्मा-परमात्मा में मिलाकर परम प्रसाद में पावन होते जाओ...

भारतीय मनोविज्ञान कितना यथार्थ !

पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक डॉ. सिग्मंड फ्रायड स्वयं कई शारीरिक और मानसिक रोगों से ग्रस्त था। 'कोकीन' नाम की नशीली दवा का वो व...